मैं ने अपनी उम्र का सरकश घोड़ा
यादों के इक पेड़ से बाँधा
मेरा लँगड़ाता बुढ़ापा
सत्तर उस के साए साए पचपन
मेरा घर मेरा दफ़्तर
मेरी जवानी मेरा बचपन
तेईस बाईस उन के पीछे तेरह बारा
मेरे गाँव का चौबारा...
मुझ को तो ये सारा मंज़र
पल पल अपना रूप बदलता मंज़र
धुँदला धुँदला सा लगता है
मेरी मेज़ पे मअ'नी का इक बुत था
मैं ने उस की पत्थर-आँखों पत्थर-होंटों पर
थोड़ा सा लफ़्ज़ों का पानी थोड़ी सी व्हिस्की छिड़की
अब देखूँ तो मेरा आईना धुला धुला सा
अब सारा मंज़र अच्छा लगता है!!
नज़्म
सवानेह-उम्री
मुसहफ़ इक़बाल तौसिफ़ी