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सवाली | शाही शायरी
sawali

नज़्म

सवाली

यूसुफ़ ज़फ़र

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गुज़र रहे हैं बराबर तबाहियों के जुलूस
ये ज़िंदगी के मुसाफ़िर कहाँ चले जाएँ

ये इश्तिहार ग़मों के अलम की तस्वीरें
ये ज़िंदगी है नहीं गर्द-ए-ज़िंदगी भी नहीं

जवाँ उमीदें फ़ज़ाए-हयात से मायूस
तनूर सीने का ईंधन हैं वो तमन्नाएँ

जली हुरूफ़ में ये हादसों की तहरीरें
कि जिन से दिल के अँधेरे में कुछ कमी भी नहीं

ये आदमी हैं नहीं बेबसी की तक़रीरें
बपा है हश्र मगर आँख देखती भी नहीं

गुज़र रहे थे वो हस्ती के मुजरिमान-ए-अज़ल
क़दम बढ़ाए हुए मैं कहाँ चला आया

जिन्हें बहिश्त की राहत भी साज़गार न थी
सुलगती पानी में सूरज की लाश वो डूबी

वो ज़िंदगी के मुसाफ़िर वो हमरहान-ए-अजल
फ़ज़ा में फैल गया तीरगी का सरमाया

गुज़र गए कि उन्हें मौत नागवार न थी
फ़लक पे जागी सितारों की शान-ए-महबूबी

वो रहगुज़ार मिरे दिल की रहगुज़ार न थी
उबल पड़े मिरी आँखों से ग़म के आँसू भी

सुकूत-ए-शब है कमाल-ए-सुकून है पैदा
ये चाहता हूँ यूँही बे-सबब चला जाऊँ

सुकून-ए-शब से ये दिल में ख़याल आता है
वो ज़िंदगी है कहाँ जिस को साथ ले जाऊँ

वो ज़िंदगी है कहाँ जिस को साथ ले जाऊँ