हम अपने ख़्वाब-ए-ख़ुश-फ़हमी से उट्ठे
बहुत शादाँ-ओ-फ़रहाँ
चले दुनिया की जानिब मोल करने को
हमारी जेब में मेहर-ओ-वफ़ा इख़्लास और सच्चाई है
लेकिन
यहाँ बाज़ार में सब लोग कहते हैं
बदल कर रह गई है अब करंसी इस ज़माने की
तुम्हारे पास तो जो कुछ भी है
बे-कार रद्दी है
कि अब वक़अत नहीं है कोई जिस की
यहाँ तो अब फ़क़त
मक्र-ओ-फ़रेब और झूट का सिक्का चलेगा
अगर ये पास है
तो सारी दुनिया है तुम्हारी
हमारी सादगी पर
इक ज़माना हँस रहा है
जिसे देखो तअ'ज्जुब से यही वो पूछता है
कहाँ तुम अब तलक सोए हुए थे
कि दुनिया इस क़दर तब्दील होने की ख़बर तुम तक नहीं पहुँची
नहीं मा'लूम ये क्या माजरा है
वगर्ना हम तो सुनते आए थे अब तक
कि जो इक अर्सा महव-ए-ख़्वाब रहते हैं
किसी बेहतर ज़माने में उठा करते हैं
लेकिन
हमारे साथ ये क्या हो गया है
नज़्म
सवाल
अंबरीन हसीब अंबर