इस क़दर तीरा ओ सर्द हरगिज़ न था दिल का मौसम कभी
एक पल में ख़ुदा जाने क्या हो गया
चाँद की वादियों में उतर आई शब!
मैं वो तन्हा सुबुक-पा मुसाफ़िर था तकमील की जुस्तुजू
खींच लाई थी इक रोज़ जिस को यहाँ
आरज़ू थी मुझे मैं ज़मीं के लिए
मेरी तर्रार पुरकार चश्म-ए-निहाँ
फ़ासलों सरहदों
वक़्त के सब हिसारों के उस पार की
शहर-ए-इमरोज़ में
अन-गिनत ख़ूबसूरत तसावीर आवेज़ां कर देगी जब
दूर की हर पुर-असरार सरशार आवाज़ मेरे लहू में उतर जाएगी
मेरे दामन को फूलों से भर जाएगी
सर्द से सर्द-तर
हर घड़ी हो रही है रग-ओ-पै में बहते अनासिर की रौ
शब गुज़र जाएगी
चाँद की मुंजमिद वादियों में सुलगती हुई रौशनी
सुब्ह-दम एक पल में उमँड आएगी
मुझ को डर है मगर
साअत-ए-नौ के हंगाम से पेशतर
तीरा सर्द शब का भयानक अमल
दिल के आफ़ाक़ पर
हो न जाए कहीं मौत तक हुक्मराँ
ख़त्म हो जाए तकमील की दास्ताँ!!
नज़्म
सर्द, तारीक रात
बलराज कोमल