वस्ल के फ़साने से
हिज्र के ज़माने तक
फ़ासला है सदियों का
फ़ासला कुछ ऐसा है
उम्र की मसाफ़त भी
जिस को तय न कर पाए
मंज़िलों के मिलने तक
आरज़ू ही मर जाए
चार सम्त आहों के
दिल-फ़िगार मंज़र हैं
मंज़रों की बारिश में
आँख भीगी रहती है
आइने से कहती है
किस लिए सँवरती हों
क्यूँ सिंघार करती हूँ
अजनबी मुसाफ़िर का
इंतिज़ार करती हूँ
रोज़ रोज़ जीती हूँ
रोज़ रोज़ मरती हूँ
नज़्म
सराब
नाज़ बट