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संग-ए-जाँ | शाही शायरी
sang-e-jaan

नज़्म

संग-ए-जाँ

ज़ाहिदा ज़ैदी

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आब-ए-ख़ुफ़्ता में
इक संग फेंका तो है

दाएरे
सतह-ए-साकित पे उभरे हैं

फैलेंगे
मिट जाएँगे

और वो संग-ए-जाँ
अपनी ये दास्ताँ

ज़ेर-ए-बार-ए-जुमूद-ए-गराँ
एक संग-ए-मलामत की मानिंद

दोहराएगा