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संदल की ख़ुशबू और साँप | शाही शायरी
sandal ki KHushbu aur sanp

नज़्म

संदल की ख़ुशबू और साँप

परवेज़ शहरयार

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कोई अफ़ई है
जो चंदन के पेड़ की ख़ुशबू से मख़मूर हो उठता है

उस की शाख़ों उस के पत्तों से लिपट कर
न जाने क्या ढूँडता रहता है

जैसे चाँद की ताक में हर दम चकोर रहता है
जैसे चाँद की घात में कोई मेघ का काला चोर रहता है

और फिर एक पल ऐसा भी आता है
जब वो चाँद को अपनी बाँहों में भर लेता है

दुनिया की निगाहों से बचा कर अपनी आग़ोश में ढाँप लेता है
सफ़ेदी ज़ुल्मत में हल हो जाती है

रौशनी तारीकी में बदल जाती है
लेकिन

ये तारीकी ही असलन तख़्लीक़ का मम्बा' है
मन का अफ़ई भी

रहना चाहता है
तेरे गिर्द-ओ-पेश

गो तिरी ज़ुल्फ़ कोई शंकर की जटा भी नहीं
फिर क्यूँ ये अफ़ई

तेरी गर्दन तेरे नाफ़-ए-तन में हमाइल होना चाहता है
बार-बार

तेरे संदल बदन की ख़ुशबू
कोई अमृत कोई सोमरस भी नहीं,

फिर क्यूँ ये दुष्ट राहू केतू की तरह
पीना चाहता है उसे बूँद बूँद चाल-बाज़ी से

तारीकी ही तेरा मुक़द्दर ठहरा
तेरा मस्कन भी तारीक है

ऐ ज़ुलक़रनैन
ज़ुल्मत ही तो आब-ए-हयात का सर-चश्मा है

तेरा सुकून तेरा क़रार भी तारीक है
तारीकी ही अस्ल मंबा-ए-नूर है

तख़लीक़-ए-काएनात का शुऊ'र है
बादल जब छटता है

चाँद और भी दमकता है
मेघ-दूत के काले घने हल्क़े से निकल कर

चाँद और भी दूधिया पुर-नूर हो जाता है
संदल के शजर से लिपट के साँप

और भी मसरूर हो जाता है
ला-शुऊर से शुऊ'र का सफ़र ख़त्म हो जाता है