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समुंदर अगर मेरे अंदर आ गिरे | शाही शायरी
samundar agar mere andar aa gire

नज़्म

समुंदर अगर मेरे अंदर आ गिरे

वज़ीर आग़ा

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समुंदर अगर मेरे अंदर आ गिरे
तू पायाब लहरों में ढल के सुलगने लगे

प्यास के बे-निशाँ दश्त में
व्हेल मछली की सूरत तड़पने लगे

हारपूनों से नेज़ों से छलनी बदन पर
दहकती हुई रेत के तेज़ चर के सहे

और फिर रेत पर झाग के कुछ निशाँ छोड़ कर
ता-अबद सर-बुरीदा से साहिल के साए में

होने न होने की मीठी अज़िय्यत में खोया रहे
ये होने न होने की मीठी अज़िय्यत भी क्या है

निगाहें उठाऊँ तो हद्द-ए-नज़र तक
अज़ल और अबद के सुतूनों पे बारीक सा एक ख़ेमा तना है

न होने का ये रूप कितना नया है
और खे़मे के अंदर

करोड़ों सितारों का मेला लगा है
ये होने का बहरूप ला-इंतिहा है

मिरा जिस्म
रेशम का सद-चाक ख़ेमा

किसी बे-कराँ दश्त में बे-सहारा खड़ा है
मगर जब मैं आँखें झुकाऊँ

तो उस सर्द खे़मे के अंदर
करोड़ों तड़पते हुए तुंद ज़र्रों का इक दश्त फैला हुआ है

ये होने न होने की मीठी अज़िय्यत
अजब माजरा है