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समझौता | शाही शायरी
samjhauta

नज़्म

समझौता

ज़ेहरा निगाह

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मुलाएम गर्म समझौते की चादर
ये चादर मैं ने बरसों में बुनी है

कहीं भी सच के गुल-बूटे नहीं हैं
किसी भी झूट का टाँका नहीं है

इसी से मैं भी तन ढक लूँगी अपना
इसी से तुम भी आसूदा रहोगे!

न ख़ुश होगे न पज़मुर्दा रहोगे
इसी को तान कर बन जाएगा घर

बिछा लेंगे तो खिल उट्ठेगा आँगन
उठा लेंगे तो गिर जाएगी चिलमन