EN اردو
सैर-ए-कश्मीर का एक तअस्सुर | शाही शायरी
sair-e-kashmir ka ek tassur

नज़्म

सैर-ए-कश्मीर का एक तअस्सुर

जगन्नाथ आज़ाद

;

'आज़ाद'! ज़रा देख तू ये आलम-ए-अर्ज़ंग
मौसम के ये अंदाज़ बहारों के ये नैरंग

ये हुस्न, ये तरतीब, ये तज़ईन ये आहंग
दामान-ए-ख़िरद चाक है दामान-ए-नज़र तंग

हर ज़र्रा है दामन में लिए तूर की दुनिया
हर बात में इक बात है हर रंग में सौ रंग

ऐ रूह-ए-बशर! तुझ से हैं दोनों मुतकल्लिम
सब्ज़े की ख़मोशी है कि झरनों का है आहंग

अब छोड़ भी अफ़्सुर्दगी अपनी दिल-ए-नादाँ
अब फूल भी हो खिल के तू ऐ ग़ुंचा-ए-दिल-तंग

हर शय से हुवैदा है झलक हुस्न-ए-अज़ल की
ज़र्रा है कि तारा है शगूफ़ा है कि है संग

सब अक्स तिरे अक्स हैं ऐ सूरत-ए-पिन्हाँ
सब रंग तिरे रंग हैं ऐ हस्ती-ए-बे-रंग

ऐ देखने वालो! ये ज़रा बात तो देखो
पत्ते हैं शफ़क़-रंग तो पत्थर हैं समन-रंग

सब कुछ ये बजा है मगर ऐ हुस्न-ए-गुरेज़ाँ
ऐ तू कि तिरी चाल पे क़ुर्बां जमन ओ गंग

इस राह में गर साथ तिरा हो न मयस्सर
लिद्दर फ़क़त आवाज़ है गुल-मर्ग फ़क़त रंग