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सहरा में एक शाम | शाही शायरी
sahra mein ek sham

नज़्म

सहरा में एक शाम

इफ़्तिख़ार आरिफ़

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दश्त-ए-बे-नख़ील में
बाद-ए-बे-लिहाज़ ने

ऐसी ख़ाक अड़ाई है
कुछ भी सूझता नहीं

हौसलों का साएबान
रास्तों के दरमियान

किस तरह उजड़ गया
कौन कब बिछड़ गया

कोई पूछता नहीं
फ़स्ल-ए-ए'तिबार में

आतिश-ए-ग़ुबार से
ख़ेमा-ए-दुआ जला

दामन-ए-वफ़ा जला
किस बुरी तरह जला

फिर भी ज़िंदगी का साथ है कि छूटता नहीं
कुछ भी सूझता नहीं

कोई पूछता नहीं
और ज़िंदगी का साथ है कि छूटता नहीं