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सहर होने तक | शाही शायरी
sahar hone tak

नज़्म

सहर होने तक

फ़रीद इशरती

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एक बिजली के खम्बे तले
कितने ज़िंदा बचे

और कितने जले
किस को मा'लूम हो

कैसे मा'लूम हो
कोई इन का शरीक-ए-शब-ए-ग़म न था

शाम से ता-सहर
अपने अंजाम से बे-ख़बर

आतिश-ए-सोज़-ए-पिन्हाँ में जलते रहे
रक़्स करते रहे

सुब्ह होने से पहले
सियह रात के क़ाफ़िले

सर्द लाशों के अम्बार को आ के बिखरा गए
शिकस्ता परों को हवाओं के झोंके न जाने किधर को उड़ा ले गए

किस को मा'लूम हो
कैसे मा'लूम हो

आतिश-ए-सोज़-ए-पिन्हाँ में कितने जले
कितने ज़िंदा बचे