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सफ़र | शाही शायरी
safar

नज़्म

सफ़र

हम्माद नियाज़ी

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आवाज़ें रात की ख़ामोशी में ओझल होने का संदेसा लाई हैं
चाँद के आधे टुकड़े पर कुछ ख़्वाबों की तदफ़ीन हुई है

घड़े का पानी क़तरा-क़तरा डोल रहा है
दीवारों की मिट्टी में बरसों से गूंधी कुछ पोरों का लम्स अचानक

क़ल्ब-कदे में चीख़ पड़ा है
रात के काले तवे पर वहशत की रोटी पकने को तय्यार पड़ी है

घड़ी की दीमक साँस का नादीदा दरवाज़ा चाट रही है
मैं यादों की तख़्ती ले कर

उस पर अपने घघू घोड़े
परियाँ जुगनू तितली गुड़िया बँटे मोर के पर बोसों की टॉफ़ी

और हर्फ़ों का पाक सहीफ़ा
तस्वीरों में ढाल रहा हूँ

कल और आज के सारे रस्ते चल आया हूँ
तन्हाई के चौराहे पर आन खड़ा हूँ

चारों जानिब अश्कों की इक बर्फ़ जमी है
साँस थमी है

और मेरे हाथों से जैसे
बूढ़ी उँगली छूट रही है