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सदा-ए-गुम्बद-ए-बे-रौज़न-ओ-दर | शाही शायरी
sada-e-gumbad-e-be-rauzan-o-dar

नज़्म

सदा-ए-गुम्बद-ए-बे-रौज़न-ओ-दर

अज़ीज़ क़ैसी

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कैसी आवाज़ है
कोई कहता है

ये दश्त मौजूद-ओ-मशहूर-ओ-मौहूम बस
हद इदराक-ओ-एहसास-ओ-आवाज़ तक ही नहीं

चश्म-ओ-दिल का ये ताइर जिसे
सैर-ए-परवाज़ समझे हो मजबूर है

मुश्त-ए-पर सर-बुरीदा-ओ-पाबंद ही
उस का सरमाया है जिस पे मग़रूर है

ता-ब-हद्द-ए-ख़िरद ता-ब-हद्द-ए-जुनूँ
जो भी है हेच-ओ-बेमाया है

क्या ग़रज़ इस से
ये क्या है कैसा है कब से है कब तक रहेगा

उसे भूल जाओ कि तुम ख़ुद हरीफ़-ए-ख़ुदावंद-ए-आफ़ाक़ हो
इन सवालात में ख़ुद तुम्हारी ही तौहीन है

तुम दिल-ए-अर्श-ए-आसार का आईना ले के आए हो
जिस में कई रंग की

तेज़-रौ सुस्त-रौ शोख़ मद्धम सजल मुस्तक़िल मुत्तसिल
मुंतशिर मुन्फ़इल मुनक़सिम सादा पेचीदा मुबहम गिरान-ओ-सुबुक

नेक-ओ-मनहूस
मौजूद-ओ-मशहूर-ओ-मौहूम परछाइयाँ

यूँ गुज़रती हैं
जैसे कोई

धीरे धीरे से पलकों को छूता रहे ख़्वाब में
कौन है कौन है

मावरा-ए-ख़िरद
मावरा-ए-जुनूँ

मावरा-ए-नज़र
मावरा-ए-नफ़स

मुंतज़िर मुज़्तरिब
अपनी सूरत दिखाने को बेचैन है

कैसी आवाज़ है जो अज़ल से तआ'क़ुब में है
मेरे लहजे का ईमान उस के तख़ातुब में है

ये कहीं मेरी आवाज़ ही तो नहीं
मैं मुझी को सदा दे रहा हूँ बड़ी देर से

बड़ी दूर से
मैं ही अपना हरीफ़-ए-अज़ल

मैं ही अपना हरीफ़-ए-अबद
मुझ को मेरा पता दो कि मैं

अपनी आवाज़ की गूँज हूँ