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सबात | शाही शायरी
sabaat

नज़्म

सबात

गुलज़ार

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आदमी बुलबुला है पानी का
और पानी की बहती सतह पर

टूटता भी है, डूबता भी है
फिर उभरता है फिर से बहता है

न समुंदर निगल सका इस को
न तवारीख़ तोड़ पाई है

वक़्त की मौज पर सदा बहता
आदमी बुलबुला है पानी का