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साथी से | शाही शायरी
sathi se

नज़्म

साथी से

उबैदुल्लाह अलीम

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मैं ख़ुद ही अपनी बहार से रूठने लगूँ गर
तो तुम मुझे रूठने न देना

जो वार लम्हे का हो वो सहना
ये सोच लेना

कि एक लम्हा गुरेज़ का
कैसे

मोहब्बतों की इक उम्र पामाल कर के गुज़र रहा है