बार-हा ऐसी तन्हाइयों में
कि जब तीरगी बोल उठे
ज़ाइक़ा मौसमों का ज़बाँ पर यकायक बदल जाए
हम सब यही सोचते हैं
कि शायद कोई और हैं
मगर कौन?
वक़्फ़ा-ए-उम्र में किस ने समझा है
सब मौत ही को विसाल अपना कहते हैं
सब मौत के मुंतज़िर हैं
मैं ने और सिर्फ़ मैं ने
तेरी साँसों में
तेरी साँसों में
अपना उमडता बरसता हुआ सैल देखा है
जो रोज़-ए-अव्वल और आख़िर मुक़द्दर है
जो इब्तिदा इंतिहा है
लोग जिस के लिए मौत के मुंतज़िर हैं
लोग बे-वज्ह क्यूँ मौत के मुंतज़िर हैं?
कोई शय झील की तह में जब डूबती है
तो इक बुलबुला जागता है
कितना बेचैन सीमाब-पा
राज़ तह के उगलता है और टूटता है
उसी दम
सतह को चूमती सब हवाएँ ये कहती हैं
''कुछ भी नहीं
किसी तह में गहराई में कुछ नहीं
मौत बे-फ़ैज़ सा सानेहा है''
लोग बे-वज्ह क्यूँ मौत के मुंतज़िर हैं?
नज़्म
साँसों की पैग़म्बरी
क़ाज़ी सलीम