एक साँप को
मैं ने तितली बना दिया
और एक काँटे को
तब्दील कर दिया फूल में
बंद गली के आख़िरी सिरे पर
जो दीवार थी
मैं ने उसे
शहर की तरफ़ खुलने वाला
दरवाज़ा बना दिया
ज़हर के दरिया को
मैं ने रख दिया
शहद की बोतल में
और छुपा दिया
उस की नज़रों से भी
उस की तस्वीर को
जिसे मैं अपना आईना समझता था
उस के बअ'द
जब वो आई और दोहराने लगी
वो लफ़्ज़
जो कभी उस के लिए बे-असर था
आज उस एक लफ़्ज़ का
मुझ पर कोई असर ही नहीं हुआ
मैं तो
उसे पहचान ही न सका
याद भी न रख सका
साँप को
नज़्म
साँप
ज़ीशान साहिल