EN اردو
साँप सपेरा और मैं | शाही शायरी
sanp sapera aur main

नज़्म

साँप सपेरा और मैं

सहबा अख़्तर

;

एक सपेरा मेरी गली में आ निकला कल शाम
उस की आँखें चमकीली थीं और आँखें संगीन

लेकिन रस में भीगे नग़्मे छेड़ रही थी बीन
नग़्मे जिन में जाग रहे थे दुनिया के आलाम

उस के गले में साँप पड़ा था जैसे कोई हार
उस ने गले से साँप उतारा और कहा कि झूम

मिट्टी चाट के प्यार से बाबू-जी के पाँव चूम
साँप ने मुझ को झूम के चूमना चाहा जो इक बार

मैं घबरा के पीछे हटा और मैं ने कहा नादान!
साँप कि पत्थर तोड़ के रख दे जिस का ज़हरी वार

साँप को कौन सिखा सकता है इंसानों से प्यार
इस को नेकी और बदी की क्या होगी पहचान

हँस के सपेरा बोला बाबू मुझ से हो गई भूल
तुम जो इक दूजे के गले पर रखते हो तलवार

तुम शहरों के बासी क्या समझोगे क्या है प्यार
मेरे लिए ये साँप हैं मेरे सुंदर बन के फूल

माथे पर ये कंठा देखो जैसे कोई ताज
ये राजा हैं पर नहीं पीते कमज़ोरों का ख़ून

ये नहीं मारते इक दूजे के ख़ेमों पर शब-ख़ून
ये नहीं लूटते अपनी माओं और बहनों की लाज

ये नहीं डसने वाले इन पर डाल के देखो हाथ
ख़ुश-क़िस्मत हो और तुम्हारे अच्छे हैं हालात

तुम इंसान-गज़ीदा हो कर समझोगे ये बात
इंसानों का साथ बुरा है या साँपों का साथ