EN اردو
साँप! आ काट मुझे | शाही शायरी
sanp! aa kaT mujhe

नज़्म

साँप! आ काट मुझे

गौहर नौशाही

;

साँप! आ काट मुझे एड़ी पर
मैं तुझे दाना-ए-गंदुम की क़सम देता हूँ

शहर के ऊँचे मकानों पे चमकता सूरज
मुझ से कहता है कि तू नंगा है

और मिरी रूह मुझे कहती है
जिस्म को ढाँक मिरी शहर में तज़लील न कर

मुझ को एहसास है मैं नंगा हूँ
सुब्ह के नूर के मानिंद मुझे

कोई मल्बूस अज़ल से न मिला
सब्ज़ पत्तों ने सहारा न दिया

साँप! आ काट मुझे
बख़्श दे मौत का मल्बूस मुझे

देख अब जिस्म मिरा
दिन की गर्मी से झुलसता है कभी

और फिर रात की सर्दी से ठिठुरता है कभी
और मिरी रूह मुझे कहती है

जिस्म को ढाँक मिरी शहर में तज़लील न कर
साँप! आ काट मुझे एड़ी पर

और मिरे जिस्म को घुलता हुआ ताँबा कर दे
सुब्ह का नूर जिसे देख के शर्मा जाए

और मिरी रूह कहे
अब तुझे मौत नहीं आएगी

मैं तुझे दाना-ए-गंदुम की क़सम देता हूँ