दम-ए-उम्र-ए-रवाँ का दायरा
रुकता है इक लम्हे पे शायद हर बरस
वो मेरी पैदाइश की साअ'त है
तुम्हारी या हमारे नन्हे बच्चों की
हमारे रिश्ता-ए-इंदराज में
या शो'ला-ए-गुल से
मुनव्वर ग़ैर-रस्मी अजनबी वाबस्तगी की
जो रग-ओ-पै में मुसलसल हो गई
मैं रोकता हूँ बेवफ़ा लम्हे को
पैहम सींचता हूँ ख़ून से इस को
दरीदा उँगलियों से
काट कर उस को खिलाता हूँ मैं दिल का ख़ोशा-ए-नाज़ुक
मगर ये ताइर-ए-रा'ना
परेशाँ फ़ासलों के नूर का रसिया
ज़मीनों आसमानों और ख़लाओं
से भी शायद मावरा है
मुख़्तसर से जश्न पर हँसता हुआ
हर सरहद-ए-इम्काँ से मेरी तीरगी से
दूर जाता है
फ़लक की रौशनी की
वादियों में
मुंतज़िर है
कोई अन-जाना अनोखा ख़ूबसूरत अजनबी उस का
नज़्म
सालगिरह
बलराज कोमल