वक़्त की बात है हर ग़ुंचा-ए-सर-बस्ता मगर
वक़्त क्या चीज़ है पैमाना-ए-बे-साख़्ता है
ये शब-ओ-रोज़ जवानी ये मह-ओ-साल रवाँ
रूह क्यूँ जिस्म के आगे सिपर-अंदाख़्ता है
शाख़ दर शाख़ नज़र आती है जीने की उमंग
चोर की तरह सरकती है रगों में कोई आग
सोचने के लिए शायद ये मह-ओ-साल नहीं
ऐ मिरे दीदा-ए-बे-ख़्वाब मोहब्बत से न भाग
हुस्न की आग ग़नीमत है कि इस से पहले
रग-ए-अय्याम थी इक जू-ए-फ़सुर्दा सर-ए-शाम
सब इसी आग का ईंधन हैं गुज़रने वाले
एक ही लर्ज़िश-ए-सद-ए-रंग का परतव है तमाम
नज़्म
साल-गिरह की रात
महबूब ख़िज़ां