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साए का इज़्तिराब | शाही शायरी
sae ka iztirab

नज़्म

साए का इज़्तिराब

सरवत ज़ेहरा

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आज तुम तक पहुँच कर
तुम्हारी आँखों के आईनों में झाँक कर

ख़ुद को टटोला
तो मालूम हुआ कि

मेरा जिस्म तो तुम तक आते आते
कहीं बीच रस्ते में गुम हो गया था

मेरा दिल!!
किसी और सीने में दबा दिया गया था

मिरे होंट
सुर्ख़ियों की तहों के नीचे

पड़े पड़े सियाह हो चुके थे
मेरी ख़ुश्बू

जो मैं तुम्हारे लिए ला रही थी
किसी पिछले झोंके ने

अपने जिस्म में टाँक ली थी
मेरा ख़्वाब

अपनी रात की कोख में
ग़लती से किसी और के लिए

सुब्ह का पहला हर्फ़ रख चुका था
मेरे क़लम की रौशनाई को

लफ़्ज़ का एक समुंदर पी चुका था
और मेरी आँखों की पुतलियों में नाचती रौशनी की

किसी सराब से दोस्ती हो चुकी थी
और अब वो शायद इसी के साथ बह रही है

सो अब तुम्हारी आँखों के आईनों में
मैं नहीं

सिर्फ़ एक साए का इज़्तिराब
डोलता नज़र आ रहा है