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साअ'त-ए-आग़ाज़ की बे-मानविय्यत | शाही शायरी
saat-e-aghaz ki be-manawiyyat

नज़्म

साअ'त-ए-आग़ाज़ की बे-मानविय्यत

मोहम्मद अनवर ख़ालिद

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सारी बे-मानविय्यत साअत-ए-आग़ाज़ में थी
जब हवा गर्म हुई

साएबानी के लिए धूप में एक पत्थर था
सफ़र आग़ाज़ किया

रात आ'साब-शिकन लाई थी बिस्तर पे उसे
वो भी दीवार बना जिस पे गिरी थी दीवार

कोई दम बैठ लिए
फिर सफ़र आग़ाज़ किया

दिल ने चाहा था कि रो लें मगर अब क्या रोना
दौड़ की आख़िरी हद पर भी कोई रोता है

हाँ मगर वो जो अभी साअत-ए-आग़ाज़ में है
दौड़ की आख़िरी हद जिस के लिए राज़ में है