EN اردو
रूह-ए-अज़िय्यत-खूर्दा | शाही शायरी
ruh-e-aziyyat-KHurda

नज़्म

रूह-ए-अज़िय्यत-खूर्दा

पैग़ाम आफ़ाक़ी

;

ज़ख़्मों के अम्बार, दर-ओ-दीवार भी
सूने लगते हैं

ख़ुशियों के दरिया में इतनी चोट लगी
कि अब इस में चलते रहना दुश्वार हुआ

सड़कों पर चलते फिरते शादाब से चेहरे सूख गए
वो मौसम जिस को आना था, वो आ भी गया

और छा भी गया
अश्जार के नीले गोशों से अब ज़हर सा रिसता रहता है

गुलज़ार ख़िज़ाँ के शोलों में हर लम्हा सुलगता रहता है
इस ख़्वाब-ए-परेशाँ में कब तक

इस रूह-ए-अज़िय्यत-ख़ूर्दा को तुम क़ैद रखोगे
छोड़ भी दो!

इस रूह-ए-अज़िय्यत-ख़ूर्दा को