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रिश्ते | शाही शायरी
rishte

नज़्म

रिश्ते

मुग़नी तबस्सुम

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मैं क्या जानूँ कौन है सूरज किस नगरी का बासी है
कैसा सर-चश्मा है जिस से जीवन धारा बहती है

मैं क्या जानूँ कौन है बादल क्यूँ आवारा फिरता है
कितने पेड़ हरे होते हैं कितनी कलियाँ मुर्झाती हैं

एक निगाह-ए-लुत्फ़ से उस की, उस के एक तग़ाफ़ुल से
मैं क्या जानूँ शब के गहरे सन्नाटों में

कितने तारे टूट गए हैं
कितनी पलकें भीग चुकी हैं कितने आँसू ख़ुश्क हुए हैं

सदियों के मलबे को हटा कर देखो
कितनी रूहें अपने अपने पंजर ढूँड रही हैं

मैं क्या जानूँ क्या है दुनिया
इंसानों की बस्ती है या एक सरा-ए-फ़ानी है

मैं तो अभी बिस्तर से उठा हूँ और मिरी आँखों में अब तक
ख़्वाब का सारा मंज़र है

मेरा पोता चाँद में बैठा अपने बेटे से कहता है
''देखो वो धरती है उस में दादा-अब्बा रहते थे''