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रिहाई | शाही शायरी
rihai

नज़्म

रिहाई

नील अहमद

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एक लम्हा मुहीत-ए-आलम है
दस्तरस में कई ज़माने हैं

सोच का इक घना सा जंगल है
और इस में फ़क़त ख़ज़ाने हैं

इन ख़यालों में क़ैद हूँ कब से
ये रिहाई के कुछ बहाने हैं