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रेत का सहरा | शाही शायरी
ret ka sahra

नज़्म

रेत का सहरा

पैग़ाम आफ़ाक़ी

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जब रेत का सहरा देख के डर जाता है अदीब का सीना भी
वो लम्हे अक्सर आते हैं

जब ज़ेहन के सारे पर्दे अटके अटके से रह जाते हैं
जब शोर मचाती शाख़-ए-ज़बाँ से सारे परिंदे मर मर के

गिर जाते हैं
वो लम्हे अक्सर आते हैं

जब आवाज़ों के पिंजर
अपने सूखे सूखे हाथ लिए

मेरे सर पर छा जाते हैं
और मैं घबरा सा जाता हूँ

इक क़ब्रिस्तान की तंहाई
इक बे-म'अनी ख़ाली रस्ता

और दो पाँव की ख़ाली ख़ाली थकी थकी सी चाप
तो अपने-आप से भी डर जाता हूँ

जब रेत का सहरा देख के डर जाता है क़लम का सीना भी
वो लम्हे अक्सर आते हैं