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रिसाइकिलबिन | शाही शायरी
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नज़्म

रिसाइकिलबिन

साइमा इसमा

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लफ़्ज़ वापस नहीं हुआ करते
तल्ख़ियों में घुले हुए लहजे

ज़र्फ़ के हाथ क्या ही माहिर हों
फूल बन कर नहीं खिला करते

हज़्फ़ करने का आसरा ले कर
कोई तहरीर लिख नहीं देना

भूल जाने की इल्तिजा ले कर
मत कहो कोई हर्फ़-ए-ना-बीना

कल जो ख़ाली गया था वार कोई
कारगर आज हो भी सकता है

भूली-बिसरी गवाहियों का शजर
बार-वर आज हो भी सकता है

नज़र-अंदाज़ होने वाला दर्द
मो'तबर आज हो भी सकता है

वक़्त की धूल में उलझ कर भी
ज़िंदा रहता है साँस लेता है

नक़्श आवाज़ का हो हर्फ़ का हो
लाख ग़ाएब करो निगाहों से

दिल के अंदर कहीं पे रहता है
नक़्श बन कर नहीं मिटा करते