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रवानगी | शाही शायरी
rawangi

नज़्म

रवानगी

ख़ालिक़ अब्दुल्लाह

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जहाँ पे मैं हूँ
बस एक कुहरा-ज़दा फ़ज़ा है

जिधर भी देखो सफ़ेद चादर टँगी हुई है
नहीं है कोई ज़मीन ऐसी कि जिस पे में अपने पाँव रखूँ

बुलंद-ओ-बाला पहाड़ों से
हज़ारों पत्थर लुढ़क रहे हैं

और आँधियाँ सीटियाँ बजाती गुज़र रही हैं
क़दीम भूरी पहाड़ियों से वो कारवाँ भी तो टूट आया

तलाश में जो न जाने किस की बहुत दिनों से भटक रहा था
वो गर्ज़-बरदार सब फ़रिश्ते भी मर चुके हैं

जो ख़ैर-ओ-शर पर निगाह रखने के वास्ते थे
कोई भी मीज़ान नेक-ओ-बद की नहीं है क़ाएम

यहाँ अब अपने क़याम की कोई साअ'त मो'तबर नहीं है
उठाओ साहिल से कश्तियों को

बहाओ का वक़्त हो गया है