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रौशनी तेज़ करो | शाही शायरी
raushni tez karo

नज़्म

रौशनी तेज़ करो

शमीम करहानी

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रौशनी तेज़ करो, तेज़ करो, तेज़ करो
गुम है अंदेशा-ए-इमरोज़ की ज़ुल्मत में हयात

ज़ोहरा ओ माह से महरूम है जज़्बात की रात
ज़ाफ़राँ-ज़ार बहिश्तों में भी उड़ता है ग़ुबार

ख़ुल्द-बर्दोश फ़ज़ाएँ हैं जहन्नम ब-कनार
तिश्नगी सुब्ह की, मामूरा-ए-हस्ती में है आम

रख दो ज़ुल्मत की हथेली पे कोई नूर का जाम
और इस ग़म के अँधेरे को न अंगेज़ करो

रौशनी तेज़ करो, तेज़ करो, तेज़ करो
दर-ओ-दीवार पे साए की मुसलसल पैकार

अज़दहे लड़ते हुए जैसे मियान-ए-कोहसार
और मेहराब-ए-शिकस्ता में पुरानी क़िंदील

बे-पर-ओ-बाल सी आँधी की सताई हुई चील
ख़ाक पर ख़ून में डूबे हुए क़दमों के निशाँ

सेहन में कुश्ता चराग़ों की चिताओं का धुआँ
इन चिताओं को समन-पोश ओ समन-रेज़ करो

रौशनी तेज़ करो, तेज़ करो, तेज़ करो
रौशनी राह में बाक़ी है न काशानों में

क़ुमक़ुमे टूटे हुए ढेर हैं वीरानों में
रात है या कि सियाही का कोई कोह-ए-बुलंद

कब सहर फेंकेगी इस कोह पे किरनों की कमंद
यास ने ज़ीस्त के एहसास को घेरा क्यूँ है

घुट गया दम ये घटा-टोप अँधेरा क्यूँ है
साथियों! शीशा-ए-गुलनार को गुल-बेज़ करो

रौशनी तेज़ करो, तेज़ करो, तेज़ करो,
जू-ए-ख़ूँ चश्म-ए-तमन्ना से रवाँ है ये क्यूँ

ज़िंदगी सू-ए-तबस्सुम निगराँ है ये क्यूँ
रूह-ए-इंसाँ को मिले ज़ुल्मत-ए-दौराँ से नजात

सज दो मग़्मूम फ़ज़ाओं में चराग़ों की बरात
सोगवाराना सही जश्न मनाना होगा

काँपते हाथों से ये जाम उठाना होगा
थाम कर दिल को उठो अज़्म-ए-तरब-ख़ेज़ करो

रौशनी तेज़ करो, तेज़ करो, तेज़ करो