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रौशनी रौशनी के ख़्वाब | शाही शायरी
raushni raushni ke KHwab

नज़्म

रौशनी रौशनी के ख़्वाब

चन्द्रभान ख़याल

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दिलों में दर्द दिमाग़ों में कश्मकश का धुआँ
जबीं पे ख़ाक निगाहों में ग़म की तारीकी

फ़रेब खाए हैं हम ने फ़रेब खाते हैं
फ़रेब दे न सके हम मगर ज़माने को

हमें तो फ़िक्र यही है कि कौन आएगा
हमारे बा'द लहू के दिए जलाने को

वो ज़िंदगी जो सभी को अज़ीज़ होती है
हम अहल-ए-ग़म के न यूँ पास आ सकेगी कभी

क़दम क़दम पे जिन्हें जुस्तुजू हो चाहत की
उन्हें रफ़ीक़ न दुनिया बना सकेगी कभी

ख़ला में ढूँड रहे हैं हम इक मसीहा को
हथेलियों पे अक़ीदत के आफ़्ताब लिए

शुऊ'र-ओ-होश की दुनिया है एक मुद्दत से
नज़र नज़र में नई रौशनी के ख़्वाब लिए

वसीअ' दश्त-ए-तमन्ना के सुर्ख़ सीने पर
सुलगते दर्द का आँचल न सर्द होगा कभी

चराग़-ए-उम्र बुझाना तो ख़ैर मुमकिन है
चराग़-ए-जेहद मुसलसल न सर्द होगा कभी

धुआँ उगलते अँधेरों में रौशनी भर दें
रगों में ख़ून की गर्दिश को तेज़-तर कर दें