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रशहात | शाही शायरी
rashhat

नज़्म

रशहात

मीम हसन लतीफ़ी

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कोई शाख़-ए-तिश्ना-ओ-ख़ुश्क जिस से हरी न हो वो सहाब क्या
जो छलक के रंग न भर सके रग-ओ-रेशा में वो शबाब क्या

दिल-ए-गुम-शुदा को में ढूँडने कहीं शब को महव-ए-जुनूँ चला
तो सदा सी आई ये सीना से कि तलाश-ए-ख़ाना-ख़राब क्या

तरब-आफ़रीं सही रुत कभी मिले बार-ए-सोज़ को साज़ में
न तनव्वो इतना भी जिस की तर्ज़-ए-नवा में हो वो रबाब क्या

नहीं फूल फूल महक बग़ैर खिले बला से खिला करे
हो मशाम-ए-ताज़ा न जिस की रूह-ए-शमीम से वो गुलाब क्या

शिकनें ये शर्म निहाँ की हैं नज़र आ रहा है जो पर्दा सा
तहों में अगर न हया-ए-जल्वा दबी हुई तो हिजाब क्या

जो लिखे थे शौक़ से ख़त उन्हें फ़क़त इतना उन का जवाब था
कि जवाब ऐसी जसारतों का सुकूत हो तो जवाब क्या

जो पिलाई है तो ये मस्ती-ए-मय ऐश रात का साथ दे
हो दराज़ तिश्ना न जिस का शम्अ' के बुझने तक वो शराब क्या