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रक़्क़ासा-ए-औहाम | शाही शायरी
raqqasa-e-auham

नज़्म

रक़्क़ासा-ए-औहाम

बेबाक भोजपुरी

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असनाम-ए-इमारत का परस्तार है आलम
सरमाया-ए-ग़फ़लत का ख़रीदार है आलम

कटती हैं सदा सिद्क़ मक़ालों की ज़बानें
हक़-गो के लिए अर्सा-गह-ए-दार है आलम

दरवेश-ए-ख़ुदा नान-ए-शबीना को है मुहताज
गो ने'मत-ओ-इकराम का बाज़ार है आलम

शादाब है दिन-रात ग़रीबों के लहू से
अरबाब-ए-ज़र-ओ-सीम का गुलज़ार है आलम

ख़ुद ज़ाहिद-ए-सद-साला गिरफ़्तार है जिस में
वो हल्क़ा-ए-तज़वीर-ओ-फ़ुसूँ-ज़ार है आलम

हर गाम पे है शो'बदा-ए-नफ़्स का फंदा
रक़्क़ासा-ए-औहाम का दरबार है आलम

दिल ख़िज़्र का है नग़मा-ए-बे-मानी पे रक़्साँ
तहज़ीब के पाज़ेब का झंकार है आलम

इस क़हबा-ए-बाज़ारी से रखो न तवक़्क़ो'
एहसान फ़रामोश-ओ-ज़ियाँ-कार है आलम

सर रखता है आवारा-मिज़ाजों के क़दम पर
ये हक़ में वफ़ादारों के तलवार है आलम

शाइर के नहीं सीने में गुंजाइश-ए-तकिया
माना कि बहुत दिलकश-ओ-पुरकार है आलम

इस अहद-ए-पुर-आशोब में 'बेबाक' न पूछो
किस दर्जा जफ़ा-कश-ओ-सितम-गार है आलम