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रक़ीब-ए-शौक़ | शाही शायरी
raqib-e-shauq

नज़्म

रक़ीब-ए-शौक़

ज़ुबैर रिज़वी

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हम अभी कुछ देर पहले साथ थे
शहर सारा यूँ लगा था

जैसे अपने ही तआ'क़ुब में
किरन सूरज की थामे चल रहा है

उस की आँखें बन के पथरा उठ रही थीं
क़ुर्ब के आईने छन से टूट कर रेज़ा हुए थे

होंट अपने सिल गए थे
जिस्म अपने जल गए थे

हम बिछड़ के ना-मुरादों की तरह वापस हुए तो
शहर सारा अजनबी सा हो गया है

उस की आँखों पर सियाह पट्टी बंधी है