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रंगीन जिल्द | शाही शायरी
rangin jild

नज़्म

रंगीन जिल्द

दिव्या महेश्वरी

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तुम मेरी मज़बूत सी दीवार हो
मेरे कमज़ोर पलों की जिल्द सी

तभी हर मौसम से बे-ख़ौफ़ बचाया है उसे
जिल्द सख़्त और वही रंगीन सी रहे

पिछले बरस याद है
कितनी उमस थी

हम गलने से लगे थे आँसुओं से या बदले
मौसम से

शायद दोनों से
जानती हूँ जिल्द की फ़ितरत

कसी बंधी पुख़्ता कोने रुँदने के बा'द
भी मज़बूत सी

लेकिन अब सफ़्हे गलने लगे
बे-वक़्त मौसम से

सँभाल सको तो मड़ाई कर लो फिर से
अक्सर पुरानी जिल्द नए सफ़्हों में बे-मआ'नी बे-रौनक़ सी मा'लूम होती है

सफ़्हे लुगदी से गल जाए कहीं