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रद्द-ए-अमल | शाही शायरी
radd-e-amal

नज़्म

रद्द-ए-अमल

मोहम्मद अल्वी

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खुली खिड़की पे इक बूढ़ा कबूतर
परों में मुँह लपेटे सो रहा है

दर-ओ-दीवार चुप साधे हुए हैं
गली का शोर बुझ कर रह गया है

कोई आवाज़ अब आती नहीं है
मिरा कमरा ख़मोशी से भरा है

अभी वो मुझ से बातें कर रहा था
मगर अब देखिए तो जा चुका है!