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राज़ | शाही शायरी
raaz

नज़्म

राज़

आसिफ़ रज़ा

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शाम ओ सहर के मंज़र गहरी उदासियों के
पर्दे गिरा रहे हैं

वाक़िफ़ तो थीं हमेशा उन से मेरी निगाहें
ओढ़े न थीं फ़ज़ाएँ

यूँ कोहर की अबाएँ
कुछ था जो खो गया है?

शाख़-ए-नज़र पे दहका
बर्ग-ए-हिना का शोला

यूँ काँपता है जैसे
मिटता कोई हयूला

शाम ओ सहर से कोई मफ़रूर हो गया है?
सीने में मैं तक़ातुर

बूँदों का सुन रहा हूँ
इक ख़्वाब बुन रहा हूँ

इस में किसे बुलाने?
बे-नाम आरज़ू का ये राज़ कौन जाने