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रात भर इक सदा | शाही शायरी
raat bhar ek sada

नज़्म

रात भर इक सदा

वज़ीर आग़ा

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तेज़ तलवार की धार ऐसी सदा
क़तरा क़तरा मिरे ख़ून में

पिघले से के मानिंद गिरती रही
मेरी रग रग में घुल कर बिखरती रही

और फिरे हुए तुंद ज़र्रों की सूरत
मिरे जिस्म में दौड़ती झनझनाती फिरी

सुब्ह होने को है
कोई दम में ये ज़ख़्मों भरी रात की गर्म चादर

उजाले के साबुन में धुल कर निखर आएगी
हर तरफ़ नर्म-ओ-नाज़ुक सी ख़ुशियों के छींटे

किवाड़ों को छेड़ेंगे सुलाएँगे
फूल खिल जाएँगे

क़हक़हों चहचहों की ज्वाला
स्याही के धब्बों को खा जाएगी

सोचता हूँ
ये इक तेज़ सी धार ऐसी चमकती सदा

जिस की किर्चें मिरी एक इक रग में
पंजों को गाड़े खड़ी हैं

कहाँ जाएगी
इतनी सदियों के बन-बास को झेल कर

अपने घर आई नारी से अब किस तरह मैं कहूँ
जाओ

ये घर तो ख़ुशियों की रानी का घर है