ऐ क़तील-ए-हर्फ़-ए-ला
ऐ माह-ए-क़ज़वीं सुन
तिरे इक़बाल का मरक़द चराग़-ए-अस्र था
अब ताक़-ए-निस्याँ में सजाया जा चुका है
नील के साहिल से ले कर ता-ब-ख़ाक का शे'र
इक ख़्वाब था शायद भुलाया जा चुका है
और हमारी लोक-दानिश का हमारे मदरसों में दाख़िला ममनूअ' ठहरा है
ज़र-ए-ख़ालिस लुटाया जा रहा है कोएलों पर सख़्त पहरा है
पुराने मा'बदों के ताक़चों में गर्द उड़ती है
गुलिस्ताँ बोस्ताँ व बुलबुल-ए-शीराज़ भी याँ अजनबी ठहरे
मुझे अब कौन पूछेगा
क़तील-ए-हर्फ़-ए-ला
काएनाती इशारिया
वहाँ जो कुछ हुआ है रौशनी मुझ को बताती है
यहाँ जो हो रहा है रौशनी तुम को बताएगे
मगर ये रौशनी आगे भी जाएगी
हर इक शय को बिल-आख़िर नूर के साँचे में ढलना है
हमें भी दो क़दम इस रौशनी के साथ चलना है
ये मुश्त-ए-ख़ाक भी मक़दूर-भर तो जगमगाएगी
मशिय्यत मुस्कुराएगी
मगर ये रौशनी आगे भी जाएगी
नज़्म
'क़ुर्रत-उल-ऐन-ताहिरा' के लिए एक नज़्म
कौसर महमूद