आज फिर क़त्ल-ए-चराग़ाँ का ये मंज़र देखो
आज फिर ख़ाक सी उड़ती है चमन-ज़ारों में
फूटा फिर ख़ून का सोता कहीं कोहसारों में
आज फिर मक़्तल-ए-इंसाँ पे बड़ी रौनक़ है
आज फिर सूरत-ए-शैताँ पे बड़ी रौनक़ है
कुछ धमाकों ने जो तस्वीर बदल डाली है
ख़ाक भी ख़ाक नहीं है यहाँ अब लाले है
बन के कौन आया है अब नौ-ए-बशर का दुश्मन
जिस कि नफ़रत का निशाना बने हैं ग़ुंचा दहन
गोदियाँ उजड़ी हैं जिन माओं की पूछो उन से
चौंक उठती हैं वो रह रह के हर इक दस्तक पे
कोने कोने से जो बच्चों कि सदा आती है
पागलों कि तरह माँ ढूँडती रह जाती है
दर्स-ओ-तदरीस के मीनार गिराने वालो
नन्हे मासूमों पे हथियार उठाने वालो
दे सकोगे हमें क्या चंद सवालों के जवाब
तुम ने जो ज़ुल्म किए क्या है बदल उस का सवाल
तुम ने इक नारा-ए-तकबीर लगाया जिस दम
ख़ौफ़-ए-अल्लाह ज़रा भी न हुआ दिल पे रक़म
ज़ेहन में तेरे न आया कि हैं बंदे उस के
जिस के नज़दीक इबादत है मोहब्बत सब से
तू ने माओं के जिगर-गोशों को मारा जिस दम
हाथ काँपे न तिरे दिल न हुए क्यूँ पुर-नम
अपने मज़हब कि इबादत का भरम है तुझ को
दर्जा पाएगा शहादत का भरम है तुझ को
इक दफ़अ' पढ़ ले अगर वाक़िआ-ए-कर्ब-ओ-बला
जान जाएगा के दर-अस्ल ये इस्लाम है क्या
तू ने क़ुरआँ जो सहीह तौर से समझा होता
आज तुझ में भी मोहब्बत का सलीक़ा होता
नज़्म
क़त्ल-ए-चराग़ाँ
शिफ़ा कजगावन्वी