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क़रीब आओ | शाही शायरी
qarib aao

नज़्म

क़रीब आओ

ख़ालिद शरीफ़

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क़रीब आओ
और अपनी साँसें मिरे बदन के तराज़ुओं को उधार दे दो

मिरे बदन के उदास गोशे
तराज़ुओं के क़दीम मस्कन

ये सोचते हैं कि कब परिंदों की फड़फड़ाहट सुकूत के कान में बजेगी
बहिश्त-ए-मौऊद

अपने सेबों की क़ाशें
मेरे बंजर क़दीम होंटों पे कब धरेगी

तुलू-ए-हस्ती का दायरा कब मिरे बदन पर मुहीत होगा
मैं सर्द-ख़ानों से आ रहा हूँ

क़रीब आओ
और अपनी साँसें मिरे बदन के तराज़ुओं को उधार दे दो