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प्यास की आग | शाही शायरी
pyas ki aag

नज़्म

प्यास की आग

अली सरदार जाफ़री

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मैं कि हूँ प्यास के दरिया की तड़पती हुई मौज
पी चुका हूँ मैं समुंदर का समुंदर फिर भी

एक इक क़तरा-ए-शबनम को तरस जाता हूँ
क़तरा-ए-शबनम-ए-अश्क

क़तरा-ए-शबनम-ए-दिल ख़ून-ए-जिगर
क़तरा-ए-नीम-नज़र

या मुलाक़ात के लम्हों के सुनहरी क़तरे
जो निगाहों की हरारत से टपक पड़ते हैं

और फिर लम्स के नूर
और फिर बात की ख़ुश्बू में बदल जाते हैं

मुझ को ये क़तरा-ए-शादाब भी चख लेने दो
दिल में ये गौहर-ए-नायाब भी रख लेने दो

ख़ुश्क हैं होंट मिरे ख़ुश्क ज़बाँ है मेरी
ख़ुश्क है दर्द का, नग़्मे का गुलू

मैं अगर पी न सका वक़्त का ये आब-ए-हयात
प्यास की आग में डरता हूँ कि जल जाऊंगा