पूरा चाँद
पूरा चाँद नहीं दिया तुम ने मुझे
मेरी ये नादान शिकायत याद है तुम्हें
छोटे से घर की टूटी हुई छत से
चाँद को टुकड़ों में देखा करती थी
तुम मुझे देखते रहते
मैं छत में कुछ ढूँढा करती थी
हाथ बढ़ा कर छू लूँ जी करता था
तुम्हारे हाथ में पिरोई उँगलियाँ
छूटा नहीं करती थी
कितनी रातें इसी अरमान में गुज़री
टॉर्च से निकलती रौशनी की तरह
मेरे चेहरे पर बिखरी थोड़ी सी चाँदनी को
अपनी उँगलियों से छू कर
तुम कहते थे पूरा चाँद
और तुम्हारी बाहोँ की ठंडक में
वो अरमान गुम-शुदा होता गया
रस्सी पे टँगी तुम्हारी सफ़ेद क़मीस
देखे बिना नींद नहीं आती अब
तुम्हारे प्यार के उजालों से बेहतर
कोई और नूर होगा
रात-भर का उम्र-भर का
पूरे चाँद का वो अधूरा अरमान
सो गया मेरे भीतर सुकून से
अपना भरा पूरा आसमान ओढ़ कर

नज़्म
पूरा चाँद
दर्शिका वसानी