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पुल | शाही शायरी
pul

नज़्म

पुल

अमीक़ हनफ़ी

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बड़ी मुद्दतों में मिरे सेहन की मीठी नीम एक दम गूँज उठी
हरी पत्तियों में कहीं कोई बाजा बजा

कोई सुर पिघल कर हवाओं में बहने लगा
बड़ी मुद्दतों में दरख़्त आज फिर मुझ से कुछ कहने सुनने लगा

कोई सुर पिघल कर हवाओं में बहने लगा
मैं तब्दील होने लगा

लगा रेल की सीटी सुन कर कोई लोमड़ी चीख़ती हो
लगा हॉर्न सुन कर कि कुत्तों का दिल भूँकता हो

लगा कार-ख़ानों के भोंपू गधों की तरह रेंगते हों
लगा जैसे प्रेशर-कुकर में ग़िज़ाओं का दम घुट रहा हो

लगा जैसे छत पर चढ़ा तेज़ पंखा बहुत देर से बड़बड़ाता चला जा रहा हो
अगर कोई सुर में है तो बस वही अजनबी तन्हा बुलबुल

कि जिस ने ज़रा देर को नीम की डालियों को चमन-ज़ार 'ख़य्याम'-नेशा-पूरी
का बना कर

मुझे अपनी पत्थर जगी आत्मा से मुलाक़ात का फिर से मौक़ा दया है!