ऐ शख़्स अगर 'जोश' को तो ढूँढना चाहे
वो पिछले पहर हल्क़ा-ए-इरफ़ाँ में मिलेगा
और सुब्ह को वो नाज़िर-ए-नज़्ज़ारा-ए-क़ुदरत
तरफ़-ए-चमन-ओ-सहन-ए-बयाबाँ में मिलेगा
और दिन को वो सर-गश्ता-ए-इसरार-ओ-मआ'नी
शहर-ए-हुनर-ओ-कू-ए-अदीबाँ में मिलेगा
और शाम को वो मर्द-ए-ख़ुदा रिंद-ए-ख़राबात
रहमत-कदा-ए-बादा-फ़रोशाँ में मिलेगा
और रात को वो ख़ल्वती-ए-काकुल-ओ-रुख़सार
बज़्म-ए-तरब-ओ-कूचा-ए-ख़ूबाँ में मिलेगा
और होगा कोई जब्र तो वो बंदा-ए-मजबूर
मुर्दे की तरह कल्बा-ए-अहज़ाँ में मिलेगा
नज़्म
प्रोग्रैम
जोश मलीहाबादी