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पिछले-पहर के सन्नाटे में | शाही शायरी
pichhle-pahar ke sannaTe mein

नज़्म

पिछले-पहर के सन्नाटे में

इब्न-ए-इंशा

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पिछले पहर के सन्नाटे में
किस की सिसकी किस का नाला

कमरे की ख़ामोश फ़ज़ा में दर आया है
ज़ोर हवा का टूट चुका है

खुले दरीचे की जाली से
नन्ही नन्ही बूँदें छन कर

सब कोनों में फैल गई हैं
और मिरे अश्कों से

उन के हाथ का तकिया भीग गया है
कितनी ज़ालिम

कितनी गहरी तारीकी है
खुला दरीचा थर-थर-थर-थर काँप रहा है

भीगी मिट्टी सौंधी ख़ुश्बू छोड़ रही है
ऊदे बादल

काले अम्बर की झीलों में डूब गए हैं
किस के रुख़्सारों की लर्ज़िश देख रहा हूँ

किस की ज़ुल्फ़ों की शिकनों से खेल रहा हूँ
चुपके चुपके लेटे लेटे सोच रहा हूँ

पिछले पहर का सन्नाटा है
किस की सिसकी किस का नाला

कमरे की ख़ामोश फ़ज़ा में दर आया है
घने दरख़्तों में पुर्वा की सीटी गूँजी

दो दिक्शों में क़ैदी रूहें चीख़ रही हैं
कोनों में दुबके हुए झींगर चिल्लाते हैं

मेहराबों से भूतों के सर टकराते हैं
क़िलए के इक बुर्ज के अंदर

एक परी (शीलाट की रानी)
ख़ंदक़ के अन-देखे पानी की गहराई

अंदेशे के बालिश्तों से माप रही है
माज़ी की डेवढ़ी की चिलमन

खुले दरीचे की जाली से
छन छन आएँ

रूप की जोत हिना की लाली कल की यादें
सौंधी ख़ुश्बू ठंडी बूँदें

कल के बासी आँसू जिन से
फ़र्दा के बालीं का पर्दा भीग रहा है

सेहर-ज़दा महबूस हसीना
सपनों के शीलाट की रानी

आईनों में हुस्न-ए-शिकस्ता देख रही है
कितने चेहरे टूटे टूटे

पहचाने अन-पहचाने से
आगे पीछे आगे पीछे भाग रहे हैं

क़िलए के आसेब की सूरत किस की सिसकी किस का नाला
कमरे की ख़ामोश फ़ज़ा में दर आया है

बिछड़े लोगो पियारे लोगो
चाहें भी तो नाम तुम्हारे जान सकेंगे?

कैसे मानें तुम को हमारे
जी लेने की मर लेने की

ख़ुशी हुई अफ़्सोस हुआ है
तुम क्या जानो

किस के हाथ का तकिया
किस के गर्म अश्कों से भीग रहा है

खुले दरीचे की जाली से चिमटी आँखो
इक लम्हे के कौंदे में तुम

किन किन अजनबी चीज़ों को पहचान सकोगी
जीवन-खेल में हारे लोगो

बिछड़े लोगो पियारे लोगो
बरखा की लम्बी रातों में

कमरे की ख़ामोश फ़ज़ा में
पिछले पहर के सन्नाटे में

रोते रोते जागने वाले
हम लोगों को सो लेने दो

और सवेरा हो लेने दो