मुझे कुछ नहीं ज्ञान
ये ज़िंदगी क्या है?
ये मौत क्या है?
मैं कितने दिनों से यही सोचता हूँ
कि मैं क्या हूँ, मैं क्या नहीं हूँ
मरी उम्र जिस तरह गुज़री है
इस को भी क्यूँ इक उम्र कहिए
ये इक उम्र में तक़्सीम है
और हर लम्हा एक दूसरे से जुदा है
जब इक लम्हा मरता है
तो दूसरा लम्हा तख़्लीक़ पाता है
पहलू में आ कर मिरे बैठ जाता है
और पूछता है तुम कौन हो?
मैं फिर सोचता हूँ
कि मैं कौन हूँ?
क्यूँ कि मैं पिछले लम्हे में जो कुछ था
वो अब नहीं हूँ
तो क्या मैं हर इक लम्हा फिर से नया जन्म लेता हूँ
हर इक लम्हा इक उम्र है?
तो क्या मैं हर इक लम्हा
ऐसी कथाएँ सुनाता हूँ
जो पिछले जंमों से मंसूब हैं?
नज़्म
पिछले जनम की कथाएँ
ख़लील-उर-रहमान आज़मी