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फिर वही कुंज-ए-क़फ़स | शाही शायरी
phir wahi kunj-e-qafas

नज़्म

फिर वही कुंज-ए-क़फ़स

साहिर लुधियानवी

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चंद लम्हों के लिए शोर उठा डूब गया
कोहना ज़ंजीर-ए-ग़ुलामी की गिरह कट न सकी

फिर वही सैल-ए-बला है वही दाम-ए-अमवाज
ना-ख़ुदाओं में सफ़ीने की जगह बट न सकी

टूटते देख के देरीना तअत्तुल का फ़ुसूँ
नब्ज़-ए-उम्मीद-ए-वतन उभरी मगर डूब गई

पेशवाओं की निगाहों में तज़ब्ज़ुब पा कर
टूटती रात के साए में सहर डूब गई

मेरे महबूब वतन तेरे मुक़द्दर के ख़ुदा
दस्त-ए-अग़्यार में क़िस्मत की इनाँ छोड़ गए

अपनी यक-तरफ़ा सियासत के तक़ाज़ों के तुफ़ैल
एक बार और तुझे नौहा-कुनाँ छोड़ गए

फिर वही गोशा-ए-ज़िंदाँ है वही तारीकी
फिर वही कोहना सलासिल वही ख़ूनीं झंकार

फिर वही भूक से इंसाँ की सतीज़ा-कारी
फिर वही माओं के नौहे वही बच्चों की पुकार

तेरे रहबर तुझे मरने के लिए छोड़ चले
अर्ज़-ए-बंगाल! उन्हें डूबती साँसों से पुकार

बोल! चटगाँव की मज़लूम ख़मोशी कुछ बोल
बोल ऐ पीप से रिसते हुए सीनों की बहार

भूक और क़हत के तूफ़ान बढ़े आते हैं
बोल ऐ इस्मत-ओ-इफ़्फ़त के जनाज़ों की क़तार

रोक उन टूटते क़दमों को उन्हें पूछ ज़रा
पूछ ऐ भूक से दम तोड़ते ढाँचों की क़तार

ज़िंदगी जब्र के साँचों में ढलेगी कब तक
इन फ़ज़ाओं में अभी मौत पलेगी कब तक