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पेश लफ़्ज़ एक मोहब्बत नामे का | शाही शायरी
pesh lafz ek mohabbat name ka

नज़्म

पेश लफ़्ज़ एक मोहब्बत नामे का

नोमान शौक़

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कमरे की सीलन से उक्ता कर
कहीं चली गई है

मेरे हिस्से की धूप
बंधन से डरने वाली चिड़िया

उड़ रही है खोखले आकाश में
और मैं

मैं तो इस्तिक़बाल भी नहीं कर सकता
किसी नई आहट का

क्यूँकि डर गया हूँ मैं
आते हुए क़दमों की

लौटती हुई बाज़गश्त से
मेरी आँखों में जम गई है

उदास लू भरी दोपहर
हिमाला की चोटी पर जमने वाली बर्फ़ की तरफ़

मैं भूल चुका हूँ
अमलतास के फूल से अपना पहला मुकालिमा

कमरे के किस दरवाज़े से
खिड़की से या रौज़न से

दाख़िल हुई थी सूरज की पहली किरन
मुझे कुछ याद नहीं

एक बेहद मसरूफ़ लम्हे के लिए
सँभाल रक्खा था मैं ने

बहुत सारा ख़ाली वक़्त
अपनी आँखों में

अपने होंटों पर
अपनी बाँहों के टूटते हुए घेरे में

बे-हँगम ख़्वाबों के बिखरते दाएरे में
किसी बसंती जिस्म के पहले त्यौहार में

अधूरा छोड़ आया मैं अपना रक़्स
मेरे इश्क़ से कहीं ज़ियादा लम्बी थी

मेरे प्रेम पत्र की भूमिका